Wednesday, April 20, 2011

Devendra Dutta Mishra
............मैं कविता के दीप जलाता हूँ।
सूरज ढल रहा है,
सितारे दूर बैठे हैं।
थोडी सी रोशनी हो,
इसलिए मैं कविता के दीप जलाता हूँ।
इसलिए मैं कविता…….

दिशाएँ मौन बैठी हैं,
हवाएँ शान्त स्थिर है।
घुटन कुछ कम हो,
इसलिए मैं शब्द-चँवर झेलता हूँ।
इसलिए मैं कविता………

दुपहरी तेज है तपिस है,
नहीं किसी वृक्ष का छाँव भी।
भावना का पगा सिर पर हो,
इसलिए गीत मुकुट गढता हूँ।
इसलिए मैं कविता…………

थके है पाँव मन थका है,
पथ मे विश्राम-स्थल भी नही।
पुश्त को आराम थोडा मिल सके,
इसलिए संगीत मरहम मलता हूँ।
इसलिए मैं कविता………

बहुत बिखराव है मन में,
दरकते हुए रिश्ते हैं हृदय मे।
दिल को दिल से मिला पाऊँ,
इसलिए प्रेमधागे जोडता हूँ।
इसलिए मैं कविता………..

आवेश मे हैं लोग भृकुटि तनी है।
कोई किसी की सुनता नही।
दिलो के बीच संवाद फिर से हो सके
इसलिए प्रेमाक्षरो के पुल बनाता हूँ।
इसलिए मैं प्रेमगीत लिखता हूँ

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